INTERNATIONAL ALLIANCE OF WASTE PICKERS

The International Alliance of Waste Pickers is a union of waste picker organizations representing more than 460,000 workers across 34 countries
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August 29, 2012


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Index of contents:
तेज होता पेंशन अभियान 
हमें ये भविष्य मंजूर नहीं!’ : रियो 20
आरटीइ – धीरे धीरे खुलता दरवाजा 
कपड़ा संग्रह अभियान V-Collect
दिल्ली की खबरें 
-ई-कचरा क्षेत्र में एक ऐतिहासिक कदम
-503 कचरा कामगारों को आधार कार्ड मिला 


तेज होता पेंशन अभियान

कर्नाटक राज्य पेंशन परिषद् सचिवालय

कर्नाटक के विभिन्न भागों से आए कई वयोवृद्ध नागरिकों सहित ४००० से ज्यादा लोगों ने ९ अगस्त को बंगलौर स्थित फ्रीडम पार्क में एक ‘जन अभियान’ का आयोजन किया। कर्नाटक राज्य पेंशन परिषद् (प्रगतिशील संगठनों, नागर समाज तथा पिछड़े व हाशियाई समुदायों के संगठनों का गठबंधन) द्वारा हसिरूदल नामक एनजीओ की सहायता से आयोजित किए गए इस कार्यक्रम में सबसे पहले २२ जिलों के लगभग ३०० लोगों ने बोनप्पा पार्क से फ्रीडम पार्क तक जुलूस निकाला। इस जुलूस को वयोवृद्ध मजदूर नेता बाबा अढ़व ने हरी झंड़ी दिखाकर रवाना किया था।

इस पीपुल्स कैम्पेन में बुजुर्गों, दलितों, आदिवासियों, सीमांत किसानों, घरेलू कामगारों, एकल महिलाओं, कचरा बीननेवालों, निर्माण मजदूरों, विकलांगों, सेक्स वर्कर्स, ट्रांसजेंडर्स और एचआईवी ग्र्स्त भी हिस्सा लिया। सेक्स  वर्कर्स यूनियन से जुड़ी सुजाता ने बताया कि ‘ज्यादातर लोग बेहद हताश हैं और उनको कोई अधिकार व सेवाएं नहीं दी जा रही हैं जबकि वे मुश्किल से अपना जीवन गुजार पा रहे हैं।’

विभिन्न राजनीतिक दलों के विख्यात एवं वरिष्ठ नागरिकों, कानून विशेषज्ञों, बुद्धजिीवियो, समाज सुधारकों और कार्यकर्ताओं ने भी इस सभा को संबोधित किया। प्रसिद्ध समाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय ने कहा कि आम चुनाव नजदीक आने की वजह से कोई भी राजनीतिक दल वरिष्ठ नागरिकों की अनदेखी नहीं कर सकता क्योंकि ये सभी सोच-समझकर वोट देते हैं। विभिन्न पार्टीयों के विधायकों और राजनीतिज्ञों ने भी इस मांग का समर्थन किया।


प्रसिद्ध रंगकर्मी गिरीश करनाड ने अपने भाषण में एक बहुत महत्वपूर्ण सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि बुजुर्ग कर्मचारियों को पेंशन देना सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है – ‘जो भी कोई किसी को काम पर रखता है, उसको पेंशन की व्यवस्था जरूर करनी चाहिए।’

पेंशन परिषद् का आंदोलन मार्च २०१२ में पुणे से शुरू हुआ था और अब यह तेजी से फैलता जा रहा है। पुणे में हाशियाई समूहों ने मिलकर पेंशन लाभों को सार्विक बनाने की मांग की थी। तीन महीने के भीतर लगभग ५,००० लोगों ने दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर भी इस मांग के समर्थन में आंदोलन किया जिसमें असंख्य वरिष्ठ नागरिकों के अलावा केंद्रीय मंत्रयिों तथा विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों, सेवानिवृत्त अधिकारियों, अर्थशास्त्रयों व न्यायाधीशों ने भी उनकी मांगों पर अपना समर्थन दिया था।

अब कर्नाटक में भी इस आंदोलन को मजबूत करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

अभियान की मांगों को एआईडब्ल्यू के पिछले न्यूजलेटर में प्रकाशित किया गया था जिसे यहां पढ़ा जा सकता है

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‘हमें ये भविष्य मंजूर नहीं!’ : रियो 20

ज्योति म्हाप्सेकर

सुशीला साबले, कल्पना अंधारे एवं ज्योति म्हाप्सेकर ने एलांयस ऑफ इंडियन वेस्टपिकर्स  (एआईडब्ल्यू) की ओर से जून २०१२ में ब्राझिल स्थित रियो डि जानेईरो में हुए रियो + २०, पृथ्वी शिखर सम्मेलन में हिस्सा लिया। इस सम्मेलन का फोकस आर्थिक उन्नति के संदर्भ में पर्यावरण सुरक्षा पर लोगों के दृष्टिकोणों और हाशियाई जनता के समावेश/बेदखली पर केंद्रित था।

शुशिला और ज्योती कि रेडियो पे मुलाकात ली(Courtesy: basuracero-justiciasocial.org)

एक-दूसरे के बारे में जानना

एआईडब्ल्यू प्रतिनिधियों ने लैटिन अमेरिका के निकारागुआ, उरूग्वे, चिली और कोलंबिया जैसे देशों से आए कचरा कामगारों के साथ विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की। इसके अलावा इंडोनेशिया से आए प्रतिनिधियों और गाया एवं विऐगो जैसे संगठनों से भी काफी चर्चा हुई। एआईडब्ल्यू प्रतिनिधियों को इन चर्चाओं से काफी जानकारी मिली। उदाहरण के लिए, उन्होंने जाना कि लैटिन अमेरिका में ज्यादातर कोऑपरेटिव सूखा कचरा तो इकट्‌ठा करते हैं लेकिन वहां गीले कचरे के प्रसंस्करण के लिए लगभग कोई कोशिश नहीं की जाती है। कुछ ऐसे मुद्दे भी थे जो सबके लिए समान थे – जैसे सभी देशों में विशाल कंपनियां कचरा इकट्‌ठा करने के ठेके ले रही हैं और कचरा बीनने वालों को हाशिये पर ढकेलती जा रही हैं। एआईडब्ल्यू की टीम को ऐसे कचरा कामगार संगठनों की सफलताओं से उत्साह भी मिला जो अदालतों में अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। कोलंबिया में इस तरह के एक संगठन ने मुकदमा जीत भी लिया है। इसी तरह, ब्राजील में लगभग दस साल तक चली लॉबिंग के बाद सरकार ने एक कानून पारित किया है जिसमें कचरा बीनने वालों को ठोस कचरा प्रबंधन में औपचारिक रूप से मान्यता दी गई है।

जनता का शिखर सम्मेलन

१३ से १७ जून २०१२ को समुद्र तट पर शामियानों में आयोजित इस जन शिखर सम्मेलन में दुनिया भर के ४५,००० से भी ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। एक शामियाने में कचरा बीनने वालों के संगठनों को लेकर सेमिनार का आयोजन किया गया था। इस सेमिनार में कचरा बीनने वालों की समस्याओं पर चर्चा हुई। एआईडब्ल्यू के कामों पर सुशिला साबले ने जो बातें रखीं उस पर इतनी उत्साहजनक प्रतिक्रयिा मिली कि पुणे में कचरा बीनने वालों को संगठित करने के अब तक के अनुभवों पर अलग से दो घंटे का सत्र आयोजित करना पड़ा।
सम्मेलन में आए प्रतिनिधि यह जानने को भी उत्सुक थे कि गीले कचरे को कम्पोस्ट/उर्वरक में तब्दील करने के लिए एआईडब्ल्यू किस तरह काम करता है। स्त्री मुक्ती संघटना (एसएमएस) द्वारा बनाई गई निसारगजुना नामक लघु फिल्म की सभी ने सराहना की। जूलिया ने फिल्म का पुर्तगाली भाषा में ‘लाइव’ अनुवाद किया था जिसकी वजह से लोगों को फिल्म आसानी से समझ में आई। सम्मेलन में आए प्रतिनिधियों ने जाना कि गीला कचरा एक ऐसा संसाधन है जिसके प्रसंस्करण से हरित रोजगार पैदा किए जा सकते हैं। इन जानकारियों के आधार पर बहुत सारे लोगों ने मांग की कि इस फिल्म का पुर्तगाली संस्करण भी तैयार किया जाए! एआईडब्ल्यू की टीम ने कचरा बीनने वालों के बारे में एक गीत भी गाया और जूलिया के अनुवाद की मदद से इसको भी लोगों ने उत्साहपूर्वक पसंद किया।
१७ जून को गाया और एसएमएस ने संयुक्त राष्ट्र एवं रियो सेंटर की ओर से आयोजित विभिन्न सेमिनारों में ‘शून्य कचरा – टिकाऊ विकास का संघर्ष’ शीर्षक पर चर्चाओं का आयोजन किया। सेन फ्रन सिस्को, ब्राजील, भारत और गाया के प्रतिनिधियों ने लोगों को बताया कि ‘शून्य कचरे’ का मतलब ये नहीं है कि सूखे कचरे को जलाकर नष्ट कर दिया गया है। उन्होंने दुनिया के १५ अलग-अलग स्थानों पर गीले और सूखे कचरे के प्रसंस्करण के लिए की जा रही कोशिशों के बारे में बताया जहां केवल ऐसे कचरे को ही डंपिंग ग्राउंड में भेजा जाता है जिसकी रीसाइक्लिंग नहीं की जा सकती है।

सड़कों का नजारा

सम्मेलन के आखिरी दिन लगभग ५०,००० लोगों ने ‘हमें यह भविष्य मंजूर नहीं’ का नारा लगाते हुए जुलूस निकाले। यह नारा संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी किए गए ‘हम जो भविष्य चाहते हैं’ नारे के जवाब में लगाया जा रहा था। जुलूस में शामिल लोगों का कहना था कि संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया के लोगों के साथ धोखा किया है और १९९२ के सम्मेलन की सफलताओं को दरकिनार कर दिया है जिनमें पर्यावरणीय क्षरण की रोकथाम के लिए बहुत सारे रचनात्मक सुझाव दिए गए थे।
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आरटीई- धीरे धीरे खुलता दरवाजा 

द्रोपदी सुकले के दो बच्चे हैं। उनके पति का देहांत हो चुका है और पिछले दो दशकों से वह केकेपीकेपी की सदस्य हैं। द्रोपदी  पेशे से कचरा बीनती हैं और उनको मालूम है कि उनके बच्चों की बेहतर जिंदगी के लिए शिक्षा कितनी जरूरी है। इसके बावजूद भारी-भरकम फीस की वजह से वह अपने बच्चों को किसी अच्छे स्कूल में दाखिल कराने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी। बहरहाल, अब शिक्षा अधिकार कानून (आरटीई) की वजह से उन्हें अपने बच्चों के भविष्य के बारे में कुछ उम्मीद दिखाई देने लगी है क्योंकि इस कानून में सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवायई शिक्षा की गारंटी दी गई है। अब उनके दोनों बच्चों को एक अच्छे स्कूल में दाखिला मिल गया है और उनको बच्चों की फीस के बारे में परेशान नहीं होना पड़ेगा।

आरटीई कानून के तहत स्कूलों में २५ प्रतिशत सीटें गरीब तबके के बच्चों के लिए आरक्षति की गई हैं। इस प्रावधान का लाभ उठाने के लिए स्वच्छ और केकेपीकेपी ने कचरा बीनने वालों की बस्तियों के आस-पास चलने वाले ४० निजी स्कूलों से संपर्क किया और लगभग ५० बच्चों के दाखिले के लिए दवाब डाला। गौरतलब है कि कानून बन जाने और सरकारी आदेश जारी हो जाने के बाद भी स्कूल वालों ने गरीब मां-बाप के बच्चों के लिए स्कूलों के दरवाजे खोलने से इनकार कर दिया था।

शिक्षा अधिकार कानून २००९ की धारा १२ के मुखय बिंदु:

  • प्रत्येक निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूल को अपनी प्रवेश स्तरीय कक्षा में कम से कम २५ प्रतिशत सीटें ऐसे बच्चों को देनी होंगी जो कमजोर और वंचित तबकों के हैं।
  • इस श्रेणी के विद्यार्थियों पर आने वाले खर्चों की भरपाई के लिए राज्य सरकार स्कूलों को या तो उस स्कूल द्वारा वसूल की जा रही फीस के बराबर पैसा देगी या सरकारी स्कूलों में प्रति बच्चे पर होने वाले व्यय के बराबर राशि देगी। दोनों में से जो राशि कम होगी वह स्कूल को अदा की जाएगी।

१३ अप्रैल २०१२ को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में आरटीई कानून की धारा १२ को वैध माना है। न्यायालय की  खंडपीठ ने कहा कि समाज के कमजोर तबकों के लिए २५ प्रतिशत आरक्षण सभी सरकारी और गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में समान रूप से लागू होगा। गैर-सहायता प्राप्त निजी अल्पसंखयक स्कूलों और बोर्डिंग स्कूलों को इस नियम से बाहर रखा गया है।

दाखिले के अनुभव
हालांकि केकेपीकेपी के अनुभव पूरी तरह नकारात्मक नहीं रहे हैं लेकिन इस मुद्दे पर काफी अज्ञानता और भ्रम भी दिखाई दिया। नया अकादमिक सत्र शुरू होने के बाद भी स्कूल कहने को तो हामी भर देते थे लेकिन वे गरीब बच्चों को दाखिले के फॉर्म तक नहीं दे रहे थे। उनको यही डर लगा रहता था कि ऐसे बच्चों की वर्दी, किताबों और ट्‌यूशन फीस के अलावा बाकी खर्चों को कौन वहन करेगा। कार्यकर्ताओं ने पाया कि शिक्षा विभाग के अधिकारी और ज्यादातर प्रिंसिपल तो इस प्रावधान के समर्थन में थे लेकिन
अक्सर नौकरशाही ढीलढाल और प्रशासकीय झंझटों की वजह से गाड़ी रुक जाती थी।
इसके बाद कार्यकर्ताओं ने सरकारी चिट्‌ठियों और राज्य सरकार के सरकारी प्रस्ताव की फोटो प्रतियां लेकर स्कूलों के चक्कर लगाए। अगर स्कूल वाले इसके बाद भी इनकार करते थे तो उन्होंने औपचारिक दाखिलों के बिना भी गरीब तबके के बच्चों को कक्षाओं में बिठा दिया। लेकिन यहां बच्चों को अलग कतारों में बिठाया जाने लगा!
इन सारे अनुभवों और घटनाओं का दस्तावेजीकरण करके पूरी तस्वीर शिक्षण मंडल (शिक्षा विभाग) के सामने पेश की गई और आखिरकार कुछ कार्रवाई शुरू हुई। स्कूल प्रबंधकों के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया गया और उनके संदेहों को दूर करने और सरकारी आदेश को सही ढंग से लागू करने के लिए उन्हें पूरी मदद दी गई।
दूसरी तरफ, मां-बाप को भी इस बात के लिए राजी किया गया कि उन्हें आरटीई कानून के तहत अपने बच्चों को बेहतर स्कूलों में दाखिला दिलाने के लिए दौड -भाग करनी चाहिए। ज्यादातर बस्तियों में युवा मेले और सूचना कार्यक्रम आयोजित किए गए जहां युवा माता-पिताओं को यह बताया गया कि अब सभी के लिए शिक्षा मुफ्त और अनिवार्य हो चुकी है। मां-बाप को इस बात के लिए मदद दी गई कि वे जरूरी दस्तावेज जुटाएं और स्कूलों में जमा कराएं। इसके लिए उन्हें बार-बार स्कूलों के भी चक्कर काटने पडे।
इस कठोर मेहनत के अच्छे नतीजे निकले हैं। जून के आखिर तक आते-आते बहुत सारे बच्चों को अपने घर से एक किलोमीटर के दायरे में पड ने वाले किसी न किसी स्कूल में दाखिला मिल चुका था।

पुणे में आरटीइZ अनुभवों की मुख्य बातें

आरटीई कानून के तहत स्कूलों में दाखिले के लिए प्रवेश स्तर

के.जी. या कक्षा १

पुणे में २५ प्रतिशत कोटे के तहत उपलब्ध सीटों की संख्या

7361

२२ जून की समय-सीमा तक भरी गई कुल सीटें

2998 (40 प्रतिशत)

केकेपीकेपी की तरफ से जमा कराए गए कुल आवेदन

53 (1 पर काम चल रहा है)

कुल दाखिले

39

कितने आवेदन खारिज हुए

(बताया गया कारण : कम/ज्यादा उम्र, ज्यादातर मामलों में फॉर्म्स खारिज करने का कारण स्पष्ट नहीं बताया गया था।)

13

स्वच्छ द्वारा जमा कराए गए कुल आवेदन

7

कुल दाखिले

2

दाखिले के बिना स्कूल जा रहे बच्चों की संख्या

5

अगले दौर की तैयारी
शिक्षा अधिकार कानून एक अप्रैल २०१० से लागू हो चुका है और इस तरह भारत उन १३५ देशों की फेहरिस्त में आ गया है जहां हर बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार दिया गया है।
इस साल बहुत सारे स्कूलों ने बताया कि उनके यहां दाखिले की प्रक्रिया २५ प्रतिशत कोटा लागू करने के फैसले के काफी पहले पूरी हो चुकी थी।
हमारे कार्यकर्ताओं ने अभी हिम्मत नहीं हारी है। अब जबकि चक्का चल पड़ा है तो वे अगले शिक्षा सत्र के लिए अपनी सारी दस्तावेजी तैयारी कर चुके हैं।
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कपड़ा संग्रह अभियान

स्वच्छ के लिए ‘इज्जत’ कोई खोखला शब्द नहीं है। हम इसके लिए हर मुमकिन कदम उठाते हैं कि हमारे सदस्यों को भी समाज के बाकी लोगों की तरह बराबर की हैसियत से काम करने व जीने का अधिकार मिले। अपने प्रति समाज के नजरिए को बदलने के लिए हम हर कोशिश करते हैं। हम चाहते हैं कि लोग जीने के हमारे संघर्ष को पहचानें लेकिन साथ ही वे हमें सम्मान भी दें। जब रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी चीजों पर मंहगाई की मार पड ती है तो हम हालात से निपटने के लिए रचनात्मक और व्यवहारिक जवाब ढूंढ ने की कोशिश करते हैं। वी-कलेक्ट क्लोथस ऐसी ही एक कोशिश है जिसमें शहरी गरीबों को अच्छे, पहनने लायक कपड े मुहैया कराने का प्रयास किया जा रहा है क्योंकि रिटेल दुकानों पर मिलने वाला कपडा लगातार मंहगा होता जा रहा है।
‘जितना ये महत्वपूर्ण है कि तुम क्या देते हो, उतना ही ये भी महत्वपूर्ण है कि तुम कैसे देते हो’ – इस पंक्ति के साथ शुरू किया गया यह प्रयास काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे देश में लोग आमतौर पर जब किसी को कपडे देते हैं तो वे फटे-पुराने, यहां तक कि गंदे कपडों की पोटली बनाकर गरीबों की तरफ उछाल देते हैं। यह जरूरतमंद लोगों के लिए निहायत अपमानजनक तरीका होता है।

वी-कलेक्ट क्लोथ्स अभियान के पोस्टरों में भी ‘देने’ की बजाय ‘रीसाइक्लिंग’ के विचार पर जोर दिया गया है और यह गुजारिश की गई है कि आप साफ, और पहनने लायक कपड़े दें – ऐसे कपडे जो नए पहनने वालों को भी उतने ही आरामदेह लगें जितने अब तक आपको लगते थे।
पहला वी-कलेक्ट  क्लोथ्स  अभियान जून २०१२ में चलाया गया। यह कार्यक्रम बंजारा नामक कपड ा स्टोर की साझीदारी में चलाया गया और इसे पुणे के नागरिकों का भारी समर्थन मिला। लोगों ने बहुत सारे कपडे दान दिए। एक हफ्ते में १,००० किलो से ज्यादा कपडे इकट्‌ठा हो गए थे! इसके बाद स्वच्छ के सदस्यों ने साइज, उम्र, जेंडर और पहनने के लायक होने के आधार पर उनको छांटा और हर कपडे का एक न्यूनतम मूल्य तय किया। इसके बाद उन्हें बेचा गया और उन्हें कोई भी खरीद सकता था। इन कपडों को खरीदने आए लोगों की प्रतिक्रिया भी काफी सकारात्मक रही। इंदिरा बस्ती से आई सरिता गायकवाड ने कहा कि जब भी उनके बच्चे दुकानों में सजे कपडों की तरफ ललचाई नजरों से देखते हैं या दूसरे बच्चों के सुंदर कपडों को देखकर दुखी होते हैं तो उन्हें बहुत बुरा लगता है। लेकिन वह कभी कपडों पर इतना खर्चा नहीं कर पाई कि अपने बच्चों का दिल रख सकें क्योंकि उन्हें बच्चों के खान-पान और शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देना था। वी-कलेक्ट क्लॉथ्स अभियान से सरिता को इस बात का एक मौका मिला कि वह न केवल अपने लड कों के लिए बल्कि अपनी बहन के नवजात बच्चे के लिए भी बिना किसी अफसोस के कपडे खरीद सकती हैं। उन्होंने कहा कि, ”हम नन्हें शिशुओं के लिए आमतौर पर कपडे नहीं खरीदते लेकिन ये तो इतने खूबसूरत और सस्ते हैं कि इस बार मैंने उसके लिए भी खरीद ही लिया!”

स्वच्छ की नजर में यह एक लगातार चलने वाला अभियान है। हम पुणे नगर निगम से भी इस बात के लिए चर्चा कर रहे हैं कि इस उद्यम के लिए एक निश्चित जगह दी जाए। अभी तक पीएमसी की प्रतिक्रिया सकारात्मक रही है। इस काम से बूढ़ी कचरा कामगारों के लिए रोजगार और आमदनी की संभावना भी दिखाई देती है क्योंकि अब वे ‘फेरे नहीं लगा सकतीं।’ इस व्यवसाय में कचरा बीनने वालों के परिवारों के ऐसे युवा सदस्यों को भी काम मिल सकता है जो पधे-लिखे हैं और इस कारोबार को संभाल सकते हैं।
शहरी गरीबों को सस्ती कीमतों पर अच्छा कपडा मुहैया करना ही वी-कलेक्ट  का अहम मकसद है। लेकिन इसका व्यापक उद्देश्य ये है कि नागरिकों को उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाने की जरूरत से वाकिफ कराया जाए ताकि हम अपने भविष्य को बचा सकें। स्वच्छ के सदस्यों का मानना है कि हमें ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ की मानसिकता को रोकना चाहिए जो हमारे शहरों में तेजी से फैल रही है। इसके लिए लोगों को उनके बारे में सोचना चाहिए जो लगभग अदृश्य रूप से शहरों को साफ-सुथरा करने में लगे रहते हैं, हमें उन चीजों के जीवन-चक्र को जानना चाहिए जिनका हम इस्तेमाल करते हैं और उपभोक्ताओं के रूप में अपनी पसंद-नापसंद और जो कचरा हम पैदा करते हैं उससे अपने संबंधों को समझना चाहिए।

स्वच्छ को इस प्रयास में कई नए साझीदार भी मिले हैं। रोटरी क्लब, एलआईसी, कई हाउसिंग सोसाइटीज तथा ऑर्चिड स्कूल ने नियमित रूप से वी-कलेक्ट क्लॉथ्स कार्यक्रम आयोजित करने का प्रस्ताव रखा है।
इस तरह की चेष्टाओं के जरिए स्वच्छ का यही प्रयास है कि कपडों की रीसाइक्लिंग के विचार को मुखय धारा में मान्यता मिले और यह सिर्फ शहरी गरीबों तक सीमित होकर न रह जाए। यह इस्तेमाल के लिए लायक और मूल्यवान संसाधनों को बिना सोचे-समझे लैंडफिल्स में फेंकने से बचाने का एक अच्छा तरीका है।
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दिल्ली की खबरें

ई-कचरा क्षेत्र में एक ऐतिहासिक कदम

इमरान खान (चिंतन – भारत)

अब चिंतन ई-कचरे की रीसाइक्लिंग के नए क्षेत्र में दाखिल हो चुका है। ई-कचरा शब्द इलेक्ट्रॉनिक एवं इलेक्ट्रिकल कचरे के लिए इस्तेमाल किया जाता है। पिछले साल भारत सरकार ने ई-कचरा (प्रबंधन एवं संभाल) नियमावली, २०११ पारित की थी जिसके तहत ई-कचरे से संबंधित सभी तरह के कामों के लिए प्रमाणन की व्यवस्था की गई है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने चिंतन को ई-कचरा इकट्‌ठा करने के लिए प्रमाणित किया है। दिल्ली में यह पहला और अभी तक एकमात्र एनजीओ है जिसको ई-कचरा इकट्‌ठा करने की मान्यता दी गई है।
दिल्ली में इस बात को लेकर काफी चिंता व्यक्त की जाती रही है कि विषैले कचरे को संभालने में अनौपचारिक क्षेत्र की क्या भूमिका होनी चाहिए। चिंतन के अलावा बाकी सभी प्रमाणित संस्थाएं निजी कंपनियां हैं। ये नीति-निर्धारण प्रक्रिया का हिस्सा था इसलिए चिंतन ने इस बात का खयाल रखा कि अनौपचारिक क्षेत्र की राह में इस प्रक्रिया से कोई अड़चन पैदा न हो क्योंकि अनौपचारिक क्षेत्र घूम-घूम कर कचरा इकट्‌ठा करने वाले कचरा कामगारों और ई-कचरा संभालने वालों की मदद से इस कचरे की रीसाइक्लिंग में बहुत अहम भूमिका अदा करता है। हालांकि फिलहाल अनौपचारिक स्तर पर ही ई-कचरा इकट्‌ठा किया जा रहा है लेकिन चिंतन का लक्ष्य है कि पहले साल के दौरान इस व्यवसाय में कम से कम १०० हरित रोजगार पैदा हों ताकि संगठन ई-कचरा (प्रबंधन एवं संभाल) नियमावली, २०११ के अनुसार काम कर सके।

503 कचरा कामगारों को आधार कार्ड मिला

भारत सरकार ने सभी भारतीयों की शिनाखत का अभियान शुरू किया है। इसके लिए यूआईडी कार्ड यानी आधार कार्ड जारी किए जा रहे हैं। सफाई सेना अपने सदस्यों को आधार कार्ड दिलाने में मदद कर रहा है क्योंकि ऐसे औपचारिक दस्तावेजों के न होने की वजह से ही कचरा बीनने वालों और कबाड़ियों को अक्सर परेशान किया जाता है। सबसे पहले सफाई सेना से जुडे कचरा बीनने वालों को बैठकें आयोजित करके यूआईडी स्मार्ट कार्ड यानी आधार कार्ड के बारे में जानकारियां दी गईं। कचरा बीनने  वालों के साथ कई कार्यशालाएं आयोजित की गईं जहां उन्हें बताया गया कि आधार कार्ड के लिए फॉर्म कैसे भरना होता है। इसके बाद हमने अपने कार्य क्षेत्र में कचरा बीनने वालों के फॉर्म भरने में मदद दी। भोपुरा, खजूरी, भोपुरा तहखंड, तुगलकाबाद पुश्तों में रहने वाले सफाई सेना सदस्यों के लिए ५०३ आधार कार्डों का पंजीकरण हुआ। सदस्यों को अपनी पहचान का यह दस्तावेज पाकर जबरदस्त खुशी मिली है। कुछ सदस्यों को तो जीवन में पहली बार ऐसा कोई दस्तावेज मिला है।

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